लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> मरणोत्तर जीवन

मरणोत्तर जीवन

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9587

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

248 पाठक हैं

ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?

मरणोत्तर जीवन

क्या आत्मा अमर है ?

 

''विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।''
- भगवद्गीता, २.१७


उस बृहत् पौराणिक ग्रन्थ ''महाभारत'' में एक आख्यान है जिसमें कथानायक युधिष्ठिर से धर्म ने प्रश्न किया कि संसार में सब से आश्चर्यकारक क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मनुष्य अपने जीवन भर प्राय: प्रतिक्षण अपने चारों ओर सर्वत्र मृत्यु का ही दृश्य देखता है, तथापि उसे ऐसा दृढ़ और अटल विश्वास है कि मैं मृत्युहीन हूँ। और मनुष्य-जीवन में यह सचमुच अत्यन्त आश्चर्यजनक है। यद्यपि भिन्न भिन्न मतावलम्बी भिन्न-भिन्न जमाने में इसके विपरीत दलीलें करते आये और यद्यपि इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य और अतीन्द्रिय सृष्टियों के बीच जो रहस्य का परदा सदा पड़ा रहेगा उसका भेदन करने में बुद्धि असमर्थ है, तथापि मनुष्य पूर्ण रूप से यही मानता है कि वह मरणहीन है।

हम जन्म भर अध्ययन करने के पश्चात् भी अन्त में जीवन और मृत्यु की समस्या को तर्क द्वारा प्रमाणित करके ''हाँ'' या ''नहीं'' में उत्तर देने में असफल रहेंगे। हम मानव-जीवन की नित्यता या अनित्यता के पक्ष में या विरोध में चाहे जितना बोलें या लिखें, शिक्षा दें या उपदेश करें, हम इस पक्ष के या उस पक्ष के प्रबल या कट्टर पक्षपाती बन जायँ, एक से एक पेचीदे सैकडों नामों का आविष्कार करके क्षण भर के लिए इस भ्रम में पड़कर भले ही शान्त हो जाएँ कि हमने समस्या को सदा के लिए हल कर डाला, हम अपनी शक्ति भर किसी एक विचित्र धार्मिक अन्धविश्वास या और भी अधिक आपत्तिजनक वैज्ञानिक अन्धविश्वास से चाहे चिपके रहें, परन्तु अन्त में तो हम यही देखेंगे कि हम तर्क की संकीर्ण गली में खिलवाड़ ही कर रहे हैं और केवल बार-बार मार गिराने के लिए मानों एक के बाद एक बौद्धिक गोटियाँ उठाते और रखते जा रहे हैं। परन्तु केवल खेल की अपेक्षा बहुधा अधिक भयानक परिणामकारी इस मानसिक परिश्रम और व्यथा के पीछे एक यथार्थ वस्तु है - जिसका प्रतिवाद नहीं हुआ है और प्रतिवाद हो नहीं सकता वह सत्य, वह आश्चर्य है जिसे महाभारत ने अपने ही नाश (या मृत्यु) को सोच सकने की ‘हमारी मानसिक असमर्थता' कहकर बताया है। यदि मैं अपने नाश (या मृत्यु) की कल्पना करूँ भी, तो मुझे साक्षीरूप से खड़े होकर उसे देखते रहना होगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book